हज़ार वा'दे किए हैं तुम ने कभी किसी को वफ़ा न करना
हज़ार वा'दे किए हैं तुम ने कभी किसी को वफ़ा न करना
क़ुर्बान अली सालिक बेग
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हज़ार वा'दे किए हैं तुम ने कभी किसी को वफ़ा न करना
चलो उसी पर जो ग़ैर कह दें कहीं हमारा कहा न करना
अगर न सुनते हो बात मेरी तो सब्र आ जाए जी को मेरे
सितम है उन को ख़मोश रहना ग़ज़ब है सुन कर सुना न करना
ख़ुशी है उन को ये जानता हूँ मगर मैं रखने को बात अपनी
कहूँ ये उन से कि बा'द-ए-मुर्दन तुम आ के मातम मिरा न करना
वो जानें 'इश्क़-ओ-हवस को जब तक हयात दुश्मन की है ग़नीमत
बढ़ेगी उस से ही क़द्र अपनी कि ग़ारत उस को ख़ुदा न करना
सबब मरज़ का है तर्क-ए-आदत यहाँ यहाँ हैं दर्द-ओ-अलम की ख़ूगर
यही समझना दवा हमारी कि चारा-साज़ो दवा न करना
अगर है आना तो अब भी आओ न तंग आ कर वो कुछ करें हम
कि जिस को सुन कर कहे ज़माना किया वो उस ने जो था न करना
ये एक मुद्दत की है तवक़्क़ो' मिटा न देना इलाही इस को
अगर है मंज़ूर पास उस का ज़ुहूर रोज़-ए-जज़ा न करना
हमें तो मरना है आख़िर इक दिन तुम्हारे सर हो के मर रहेंगे
सताए जाना तुम्हें क़सम है कमी न करना ख़ता न करना
बता रहे हैं फ़लक को दुश्मन वो मुंतक़िम है करे जो चाहे
उठे हुए हैं जो हाथ अपने तसव्वुर उस को दु'आ न करना
कहें 'अदू की बुराइयाँ क्या मिले हो उस से मिलो व-लेकिन
बताए देते हैं इस लिए हम कि हम से आ कर गिला न करना
लबों पे रहना कि जब तक उम्मीद-ए-आमद उस की है मुझ को बाक़ी
करे न वा'दा वफ़ा अगर वो तो मुझ से ऐ जाँ वफ़ा न करना
यहीं हो अपना सा हाल दुश्मन मिले न दोज़ख़ बला से उस को
न निकले जब तक ये हसरत अपनी इलाही महशर बपा न करना
हया का पर्दा है वर्ना तुम तो हुए पशेमान-ए-जंग-ए-दुश्मन
नहीं हो फ़िक्र मुसालहत में तो हम से मिल कर हया न करना
सहेंगे जो कुछ पड़ेगी हम पर बला में फँसते हो किस लिए तुम
अगर है मंज़ूर ख़ैर 'सालिक' तो ज़िक्र उन से मिरा न करना
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