हिज्र में ऐसे तिरे शाम-ओ-सहर जाते हैं
हिज्र में ऐसे तिरे शाम-ओ-सहर जाते हैं
क़ाफ़िले यादों के आते हैं गुज़र जाते हैं
क्या सज़ा पाई है फूलों ने महकने की ये
हर सहर खिलते हैं हर शाम बिखर जाते हैं
दर-ब-दर ख़्वाब से मंज़र हैं मिरी आँखों में
ग़म भी पलकों पे मिरी आ के ठहर जाते हैं
ज़िंदगी हम ने तिरा कुछ तो भरम रक्खा है
इतने किरदारों में जीते हैं कि मर जाते हैं
कू-ब-कू यास का 'आलम है फ़क़त हम तन्हा
हौसले टूट के राहों में बिखर जाते हैं
जुस्तुजू किस की है जानें ये सफ़र है कैसा
हम को जाना है कहाँ हम ये किधर जाते हैं
कश्मकश में है ख़ुशी सब की भला क्यों आख़िर
हम जिधर जाते हैं ये ग़म भी उधर जाते हैं
आओ अब यारो ज़मीं पर भी उतर आएँ हम
ये परिंदे भी बुलंदी से उतर जाते हैं
इक नज़र तेरी ज़माने पे हुआ करती है
इगड़े-बिगड़े जो मुक़द्दर हैं सँवर जाते हैं
सर-फिरी आग है इस दिल में लगी ऐ 'आबिद'
आ चलें अब किसी दरिया में उतर जाते हैं
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