हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
अभी वही कार-ए-आशिक़ाँ है सुकूत-ए-ग़म का कलाम कहना
उफ़ुक़ तग़य्युर की तेज़ लौ से पिघल रहा है बदल रहा है
मगर इस अहवाल-ए-वाक़ई को लिखें न वो मेरे नाम कहना
हज़ार हाथों से मैं ने जिस को सँभाल रक्खा था ज़िंदगी में
चराग़-बर-कफ़ बिसात-ए-दिल पर खड़ी हुई है वो शाम कहना
अगर तिरी आस्तीन-ए-तर को ख़बर नहीं दास्तान-ए-ग़म की
ज़माना उनवान-ए-ताज़ा-तर से सुना गया ना-तमाम कहना
धोवें में इक ताइर-ए-नवा-गर ने आतिश-ए-गुल पे जान दे दी
रग-ए-गुलू में जली हुई लय चमक गई ज़ेर-ए-दाम कहना
हम ऐसे जादा-तराज़-ए-सहरा निकल ही आते हैं चंद आख़िर
सुख़न को उस्लूब-ए-ज़िंदगी का दिया है हम ने ही नाम कहना
कभी कभी तो लहक सा उठता है बर्क़-ओ-बाराँ की चशमकों में
किसी अदा-ए-विसाल-सामाँ का ख़ंजर-ए-बे-नियाम कहना
उतर गया दिल में ज़हर-ए-काकुल निसार इक सर्व-ए-दिल-सताँ के
फ़ुसून-ए-चारा-गरी से गुज़रा मोहब्बतों का पयाम कहना
ख़याल-ए-यारान-ए-कू-ब-कू से नज़र है इक मातम-ए-नज़ारा
दम-ए-हरीफ़ान-ए-बे-सुबू से नफ़स है बे-नंग-ओ-नाम कहना
अभी तो कुछ लोग ज़िंदगी में हज़ार सायों का इक शजर हैं
उन्हीं के सायों में क़ाफ़िले कुछ ठहर गए बे-क़याम कहना
ख़ुदा तुझे आफ़ियत की आबादियों में नौरस सफ़ीर रक्खे
उधर के दीवार-ओ-दर सलामत मिरी तरफ़ से सलाम कहना
- पुस्तक : Kulliyat-e-Aziz Hamid Madni (पृष्ठ 480)
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