हुस्न के गुन गिन सकूँ ये गुन कहाँ रखता हूँ मैं
हुस्न के गुन गिन सकूँ ये गुन कहाँ रखता हूँ मैं
लब नहीं खुलते मगर ज़ौक़-ए-बयाँ रखता हूँ मैं
लौ जहाँ दी शम्अ ने मैं भी तड़प कर जल बुझा
फ़ितरत-ए-परवाना-ए-आतिश-बजाँ रखता हूँ मैं
फिर मिरे दामन में कोई फूल खिलता ही नहीं
जब ज़रा क़ाबू में चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ रखता हूँ मैं
बे-लुटाए कट नहीं सकती मताअ'-ए-इश्क़-ए-दोस्त
दौलत-ए-बेगाना-ए-ख़ौफ़-ए-ज़माँ रखता हूँ मैं
गुलशन-ए-जम्हूर हो या जन्नत-ए-मज़दूर हो
कुछ अलग इन से ज़मीन-ओ-आसमाँ रखता हूँ मैं
तोड़ देता है तिलिस्म-ए-हर-निज़ाम-ए-पुर-फ़रेब
दिल में जो दर्द-ए-कसाँ-ओ-ना-कसाँ रखता हूँ मैं
ख़िरमन-ए-बातिल उन्हीं से होगा 'आरिफ़' शो'ला-रू
फ़िक्र की हर मौज में वो बिजलियाँ रखता हूँ मैं
- पुस्तक : متاع دل و جاں (पृष्ठ 69)
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