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इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

MORE BYराजेन्द्र मनचंदा बानी

    इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला

    बस-कि हर काम हुनर से निकला

    मैं तिरे ब'अद फिर गुम-शुदगी

    ख़ेमा-ए-गर्द-ए-सफ़र से निकला

    ग़म निकलता कभी सीने से

    इक मोहब्बत की नज़र से निकला

    सफ़-ए-अब्र-ए-रवाँ तेरे ब'अद

    इक घना साया शजर से निकला

    रास्ते में कोई दीवार भी थी

    वो इसी डर से घर से निकला

    ज़िक्र फिर अपना वहाँ मुद्दत ब'अद

    किसी उनवान-ए-दिगर से निकला

    हम कि थे नश्शा-ए-महरूमी में

    ये नया दर्द किधर से निकला

    एक ठोकर पे सफ़र ख़त्म हुआ

    एक सौदा था कि सर से निकला

    एक इक क़िस्सा-ए-बे-मअ'नी का

    सिलसिला तेरी नज़र से निकला

    लम्हे आदाब-ए-तसलसुल से छुटे

    मैं कि इमकान-ए-सहर से निकला

    सर-ए-मंज़िल ही खुला 'बानी'

    कौन किस राहगुज़र से निकला

    RECITATIONS

    नोमान शौक़

    नोमान शौक़,

    नोमान शौक़

    इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला नोमान शौक़

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