इंसाफ़ की गर्दन पर ख़ंजर ख़ुद चलते देखा क्या कहिए
इंसाफ़ की गर्दन पर ख़ंजर ख़ुद चलते देखा क्या कहिए
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
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इंसाफ़ की गर्दन पर ख़ंजर ख़ुद चलते देखा क्या कहिए
अहबाब-परस्ती के चक्कर में पड़ गई दुनिया क्या कहिये
फिर ज़िक्र-ए-सदाक़त छेड़ के अपनी जान का दुश्मन कौन बने
दुनिया की निगाहों ने देखा दुनिया का तमाशा क्या कहिए
वो देख हवस के दोष पे शायद 'इश्क़ की मय्यत जाती है
अब इस दुनिया में क्या होगा अहल-ए-वफ़ा का क्या कहिए
जो आज सुनहरी पर्दों में चेहरों को छुपाए बैठे हैं
तक़दीर के मारों से उन का कल वा'दा क्या था क्या कहिए
जिस बस्ती में इंसानों का दिल ग़म के हाथों छलनी हो
उस बस्ती में बसने वालों के दिल की तमन्ना क्या कहिए
कुछ लोग यहाँ हैं ऐसे भी कल सब कुछ थे अब कुछ भी नहीं
बाक़ी है फ़क़त तन्हाई में अश्कों का सहारा क्या कहिए
ग़ैरों के सितम से बच निकले अपनों के करम से बच न सके
ऐसे में अगर मजबूर करे ग़ैरत का तक़ाज़ा क्या कहिए
कहते हैं गुज़शता दौर को फिर तारीख़ जहाँ दोहराती है
किस धुन में गाता फिरता है तक़दीर का धारा क्या कहिए
दुनिया में जी से जाएगा कौन अम्न-ए-‘आलम की ख़ातिर
ये वक़्त बताएगा बैठे किस करवट दुनिया क्या कहिये
हर एक मुजाहिद से लाखों उम्मीदें हैं मज़लूमों को
इस टूटी नाव का कौन बने किस वक़्त सहारा क्या कहिये
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