इस तरह दुनिया में दिल को महरम-ए-ग़म कीजिए
इस तरह दुनिया में दिल को महरम-ए-ग़म कीजिए
जब ख़ुशी कोई मयस्सर हो तो मातम कीजिए
इश्क़ से फिर सिलसिला जुँबानी-ए-ग़म कीजिए
ज़िंदगी पर मौत को पहले मुक़द्दम कीजिए
हुस्न की जानिब निगाह-ए-शौक़ या कम कीजिए
या निगाह-ए-शौक़ को इक अहद-ए-मोहकम कीजिए
मौत का क्या मौत का तो सौ तरह ग़म कीजिए
ज़िंदगी नाशाद का किस तरह मातम कीजिए
देख कर अहल-ए-तरब का साज़-ओ-सामान-ए-तरब
बद-नसीबों का ज़रा अंदाज़ा-ए-ग़म कीजिए
जाने किस आलम की हसरत में हैं नज़रें मुज़्तरिब
वर्ना क्या नज़्ज़ारा-ए-हुस्न-ए-दो-आलम कीजिए
अब जुनूँ की सरहदों से आ मिला है जोश-ए-इश्क़
कुछ समझ कर अब निगाह-ए-हुस्न बरहम कीजिए
अहल-ए-इशरत अपनी बज़्म-ए-ऐश-ओ-इशरत के क़रीब
एहतियातन मुनअक़िद इक बज़्म-ए-मातम कीजिए
आँसुओं का पोंछने वाला ही जब कोई न हो
आह किस उम्मीद पर आँखों को पुर-नम कीजिए
ग़म को होने दीजिए हो जिस क़दर मानूस दिल
दिल को जितना हो सके बेगाना-ए-ग़म कीजिए
फिर क़फ़स से लौट कर आए चमन में फिर वही
आशियाँ के वास्ते तिनके फ़राहम कीजिए
हैं निगाहों की हदों से दूर अभी बेबाकियाँ
शोख़ चितवन से ग़ुरूर-ए-हुस्न को कम कीजिए
ता-कुजा आवारा-ए-नज़्ज़ारा चश्म-ए-हुस्न-ए-दोस्त
जम्अ' इक मरकज़ पे क्यूँ कर हुस्न-ए-आलम कीजिए
हर ख़ुशी ने इस नतीजे पर हमें पहुँचा दिया
जब ख़ुशी कोई मयस्सर हो तो मातम कीजिए
आरज़ू से बढ़ के दुश्मन कोई इंसाँ का नहीं
जिस क़दर मुमकिन हो 'बिस्मिल' आरज़ू कम कीजिए
- पुस्तक : Kulliyat-e-bismil Saeedi (पृष्ठ 177)
- रचनाकार : Bismil Saeedi
- प्रकाशन : Sahitya Akademi (2007)
- संस्करण : 2007
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