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इस तरह ज़ीस्त बसर की कोई पुरसाँ न हुआ

इमदाद अली बहर

इस तरह ज़ीस्त बसर की कोई पुरसाँ न हुआ

इमदाद अली बहर

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    इस तरह ज़ीस्त बसर की कोई पुरसाँ हुआ

    यूँ मैं दुनिया से उठा दाग़-ए-अज़ीज़ाँ हुआ

    मुस्तक़िल वज़्अ रही कुछ ग़म-ए-दौराँ हुआ

    आँधियों में भी ग़ुबार अपना परेशाँ हुआ

    वज़्अ पर हर्फ़ आई दिया वहशत में भी

    लफ़्ज़-ओ-मा'नी की तरह मैं कभी उर्यां हुआ

    वार क्या क्या सहे तेग़ हवादिस की मगर

    ऐसे बश्शाश रहे ज़ख़्म भी गिर्यां हुआ

    बुझ गया दिल का कँवल दाग़ से जलते जलते

    गुल किसी शब ये चराग़-ए-शब-ए-हिजराँ हुआ

    सामना ऐसे बलाओं का रहा दुनिया में

    मलक-उल-मौत भी आए तो हिरासाँ हुआ

    एड़ियाँ मैं ने ये रगड़ीं कि गढ़े डाल दिए

    गोरकन का भी मैं शर्मिंदा-ए-एहसाँ हुआ

    मिस्ल-ए-नै नाला-कशी में मिरी गुज़री गुज़रे

    दिल में नासूर तो ये है कोई पुरसाँ हुआ

    अबरू जाती अगर बे-असर आँसू बहते

    शुक्र अंगुश्त-नुमा पंजा-ए-मिज़्गाँ हुआ

    उल्फ़त अबरू-ए-सनम की हुई पत्थर की लकीर

    महव-ए-दिल से ख़त-ए-क़िस्मत किसी उनवाँ हुआ

    मुन्हरिफ़ क्यूँ रुख़-ए-महबूब से है वाइ'ज़

    तू मुसलमान हुआ क़ाइल-ए-क़ुरआँ हुआ

    दिल से ना-चीज़ ज़माने में कोई चीज़ नहीं

    मोल क्या मुफ़्त भी जिस का कोई ख़्वाहाँ हुआ

    हम भी तो देखते किस तरह निकलते गिर कर

    चाह-ए-यूसुफ़ ये तिरा चाह-ए-ज़नख़दाँ हुआ

    कपड़े फाड़े से भी निकले हरारत दिल की

    रिश्ता-ए-शम्अ' कोई तार-ए-गरेबाँ हुआ

    नाला करने को भी मुँह चाहिए अल-क़ैस-ए-हज़ीं

    कोई ज़ंगूला-ए-जम्माज़ा हुदी-ख़्वाँ हुआ

    सुफ़्ला-ओ-दूँ कभी रौनक़-ए-महफ़िल होंगे

    जुगनू दिन से कभी आलम में चराग़ाँ हुआ

    जुनूँ निकले इक दाग़ से हसरत दिल की

    दाग़ मुझ को है कि ताऊस-ए-गुलिस्ताँ हुआ

    हाए शंगर्फ़ है लिक्खे कि लब-ए-लालीं है

    बात ये पूछते याक़ूत रक़म-ख़ाँ हुआ

    कोई लड़का दम-ए-क़ैद हुआ दामन-गीर

    कोई पत्थर मुझे संग-ए-रह-ए-ज़िंदाँ हुआ

    जुनूँ कुछ मिला आबला-पाई का मज़ा

    गोखरो पाँव में क्यूँ ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुआ

    क्या फ़रोमाया बढ़ेगा उसे हिम्मत क्या है

    'बहर' दरिया का कभी चाह में तुग़्याँ हुआ

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