इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
बाहर अपने ही किनारों से उछलना पड़ जाए
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
कभी इस ख़्वाब से मुमकिन है निकलना पड़ जाए
छोड़ जाएँ जो तुम्हारे सभी होते सोते
और कभी साथ हमारे तुम्हें चलना पड़ जाए
दूर से देख के हम जिस को डरा करते हैं
क्या मज़ा हो जो इसी आग में जलना पड़ जाए
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
ख़ुद हमें भी कभी इस रंग में ढलना पड़ जाए
दिल की ये आब-ओ-हवा इतनी मुख़ालिफ़ है अगर
और इन्ही मौसमों में फूलना-फलना पड़ जाए
कौन कह सकता है बदले हुए आसार के साथ
देखा-देखी ही तबीअ'त को सँभलना पड़ जाए
ए'तिबार एक दफ़ा और भी करते हुए फिर
इन्हें वा'दों के खिलौनों से बहलना पड़ जाए
शो'ला मजबूर हो दरिया पे मचलने को 'ज़फ़र'
किसी दिन दश्त से चश्मे को उबलना पड़ जाए
- पुस्तक : ग़ज़ल का शोर (पृष्ठ 139)
- रचनाकार : ज़फ़र इक़बाल
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2023)
- संस्करण : 2nd
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