झूटी तसल्लियों पे गुज़र कर रहे हैं लोग
झूटी तसल्लियों पे गुज़र कर रहे हैं लोग
काग़ज़ की कश्तियों में सफ़र कर रहे हैं लोग
अब भी हैं शब-गज़ीदा सहर की तजल्लियाँ
नादाँ हैं एतिबार-ए-नज़र कर रहे हैं लोग
क्या अपने बाज़ुओं पे भरोसा नहीं रहा
क्यों बेबसी से ज़ीस्त बसर कर रहे हैं लोग
गुलशन-परस्तियों पे न हर्फ़ आए दोस्तो
माना फ़ज़ा को ज़हर-असर कर रहे हैं लोग
लगता है कोई ख़्वाब सुनहरे दिखा गया
शिद्दत से इंतिज़ार-ए-सहर कर रहे हैं लोग
पहले दरख़्त-ए-ख़ुर्मा से साए का था गिला
बरगद से अब उमीद-ए-समर कर रहे हैं लोग
'तालिब' किसे है आज सुख़न-फ़हमियों से काम
क्यों आरज़ू-ए-दाद-ए-हुनर कर रहे हैं लोग
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