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जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी

नासिर ज़ैदी

जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी

नासिर ज़ैदी

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    जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी

    वो एक ग़ारत-ए-जाँ ही मता-ए-जाँ ठहरी

    ये ग़म नहीं कि मिरा आशियाँ रहा रहा

    ख़ुशी ये है कि यहीं बर्क़ बे-अमाँ ठहरी

    वो तेरी चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ थी कि मौज-ए-करम

    वहीं वहीं पे मैं डूबा जहाँ जहाँ ठहरी

    कभी थे उस में मिरी ज़िंदगी के हंगामे

    वो इक गली जो गुज़रगाह-ए-दुश्मनाँ ठहरी

    वही थी ज़ीस्त का हासिल वही थी लुत्फ़-ए-हयात

    वो एक साअत-ए-रंगीं जो बे-कराँ ठहरी

    मैं उस को भूल भी जाऊँ तो किस तरह 'नासिर'

    जो शर्त-ए-ख़ास मिरे उन के दरमियाँ ठहरी

    स्रोत :
    • पुस्तक : Ghazalistaan (पृष्ठ 271)
    • रचनाकार : Farkhanda Hashmi, Najeeb Rampuri
    • प्रकाशन : Farid Book Depot ltd, New Delhi (2003)
    • संस्करण : 2003

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