जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
मिरी आँखें बंद कर दो कि किसी को मैं न देखूँ
दिल-ए-गर्म ख़ून-ए-उल्फ़त मिरे बर में रख दिया है
सू-ए-गुल तो मुल्तफ़ित हूँ जो कली को मैं न देखूँ
मिरा दिल लगा है जिस से मिरा जी गया है जिस पर
मिरी क्यूँ-कि ज़िंदगी हो जो उसी को मैं न देखूँ
मिरी तुझ से ज़िंदगी है तो मिरा जिगर है जी है
किसे देख कर जियूँ फिर जो तुझी को मैं न देखूँ
मिरी क्यूँ-कि हो तसल्ली तू ही 'मुसहफ़ी' बता फिर
दिल-ए-शब भी उस सनम की जो गली को मैं न देखूँ
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(Vol-4)(pdf) (पृष्ठ 224)
- रचनाकार : Ghulam hamdani Mashafi
- प्रकाशन : Qaumi council baraye -farogh urdu (2005)
- संस्करण : 2005
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