कब है मंज़ूर कि यूँ जिंस-ए-दिल-ए-ज़ार बिके
कब है मंज़ूर कि यूँ जिंस-ए-दिल-ए-ज़ार बिके
क़ुर्बान अली सालिक बेग
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कब है मंज़ूर कि यूँ जिंस-ए-दिल-ए-ज़ार बिके
पर ये वो शय है न बेचूँ भी तो सौ बार बिके
लौह-ए-मुर्तद पे ये महमूद के लिख देना था
हुस्न वो शय है कि लेते ही ख़रीदार बिके
सो ही जावे मिरे तालेअ' के बराबर आ कर
क्या हो गर बख़्त-ए-अदू भी सर-ए-बाज़ार बिके
हों ख़लिश दोस्त दुआ है कि दवा के बदले
यारब इस अहद में दर्द-ए-दिल-ए-बीमार बिके
बिक के यूसुफ़ ने ख़रीदा है वो रुत्बा कि न पूछ
ये ही बिकना है तो हम मुफ़्त ही सौ बार बिके
पोशिश-ए-का'बा से क्या कम है अगर दिल पर है
चाहिए मेरे गरेबाँ का हर इक तार बिके
देख कर अश्क-ए-मुसलसल को वो आँसू भर लाए
लाख मोती के एवज़ दो दुर-ए-शहवार बिके
जब वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ है तो हैरत क्या है
दैर में जुब्बा बिके का'बे में ज़ुन्नार बिके
है शब-ए-वस्ल-ए-अदू और ज़माना महजूर
क्यूँ न बिस्तर के लिए गुल की जगह ख़ार बिके
कहते हैं ज़ुल्फ़ में रखने को हैं कुछ दिल दरकार
तालिब उस चीज़ के हैं जो पस-ए-दीवार बिके
जामा ऐ दस्त-ए-जुनूँ और कहाँ से लाऊँ
ले रखूँ मोल अगर दामन-ए-कोहसार बिके
असर-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार है ये भी मेरा
कि बयाबाँ में बहुत सूख के अश्जार बिके
तुम हो साक़ी तो अजब क्या है कि मयख़ाने में
एवज़-ए-सनअ'त-ए-जम साग़र-ए-सरशार बिके
ख़ौफ़ है ये दिल-ए-बे-ताब न बर में आ जाए
हम न लें मोल जो वो तुर्रा-ए-तर्रार बिके
एक बुलबुल रहे किस किस की ज़ुलेख़ाई में
ढेर फूलों का जब आ कर सर-ए-बाज़ार बिके
बार-ए-इस्याँ को उठाए हुए फिरता कब तक
मुफ़्त ही टाल दूँ 'सालिक' जो ये अम्बार बिके
- पुस्तक : Kulliyat-e-Saalik (पृष्ठ e-483 p-451)
- रचनाकार : Mirza Qurban Ali Salik Beg
- प्रकाशन : Imtiyaz Ali Taj,Majlis-e-Taraqqi-e-Adab, Lahore (1966)
- संस्करण : 1966
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