कभी ख़ुदा कभी ख़ुद से सवाल करते हुए
कभी ख़ुदा कभी ख़ुद से सवाल करते हुए
मैं जी रहा हूँ मुसलसल मलाल करते हुए
मगन था कार-ए-मोहब्बत में इस तरह कि मुझे
ख़बर न हो सकी अपना ये हाल करते हुए
किसे बताऊँ गुज़ारा है मैं ने भी इक दौर
मिसाल होते हुए और मिसाल करते हुए
वो जज़्ब-ओ-शौक़ ही आख़िर अज़ाब-ए-जाँ ठहरा
हराम हो गया जीना हलाल करते हुए
न कोई रंज उन आँखों में था दम-ए-रुख़्सत
न थी ज़बान में लुक्नत सवाल करते हुए
ये काम उस के लिए जैसे मसअला ही न था
वो पुर-सुकून था कार-ए-मुहाल करते हुए
तमाम उम्र जो लौ दें मुझे रखें आबाद
गया वो ऐसे ग़मों से निहाल करते हुए
- पुस्तक : Tabani (पृष्ठ 149)
- रचनाकार : Mubeen Mirza
- प्रकाशन : Academy Bazyaft (2015)
- संस्करण : 2015
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