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कई पयाम बरा-ए-सुकून-ए-जाँ तो मिले

लैस क़ुरैशी

कई पयाम बरा-ए-सुकून-ए-जाँ तो मिले

लैस क़ुरैशी

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    कई पयाम बरा-ए-सुकून-ए-जाँ तो मिले

    मगर तमाम हुई अपनी दास्ताँ तो मिले

    कोई तो समझे मिरे कर्ब का लब-ओ-लहजा

    ये आरज़ू है मुझे कोई हम-ज़बाँ तो मिले

    कोई फ़ज़ा कोई मौसम हो हम से हो मंसूब

    बहार अगर नहीं मिलती हमें ख़िज़ाँ तो मिले

    मक़ाम-ए-शुक्र है मेरे लिए कि आख़िर-कार

    मिरे हरीफ़ों में कुछ अहल-ए-ख़ानदाँ तो मिले

    हूँ ग़म-नसीब तो क्या ग़म कि राह-ए-हस्ती में

    तलाश-ए-हक़्क़-ओ-सदाक़त में हमरहाँ तो मिले

    यही बहुत है ख़िज़ाँ को ख़िज़ाँ जो कहते हैं

    कुछ ऐसे फूल हमें ज़ेब-ए-गुलसिताँ तो मिले

    शिकस्ता-पा हैं तो क्या हम तो सर के बल जाएँ

    मगर ये बात कोई मीर-ए-कारवाँ तो मिले

    हिकायत-ए-दिल-ए-दर्द-आश्ना सुनाऊँगा

    तिरी नज़र से मुझे जुरअत-ए-बयाँ तो मिले

    ये ज़िंदगी के बयाबाँ में धूप का सहरा

    कहाँ क़याम करूँ कोई साएबाँ तो मिले

    ये रोज़-ओ-शब भी हमारे बदल तो सकते हैं

    कभी ज़मीन से कर ये आसमाँ तो मिले

    रिहा हुए हैं मगर 'लैस' ये रिहाई क्या

    क़फ़स से छूटने वालों को आशियाँ तो मिले

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