करते न हम जो अहल-ए-वतन अपना घर ख़राब
करते न हम जो अहल-ए-वतन अपना घर ख़राब
होते न यूँ हमारे जवाँ दर-ब-दर ख़राब
आ'माल को परखती है दुनिया मआल से
अच्छा न हो समर तो है गोया शजर ख़राब
इक बार जो उतर गया पटरी से दोस्तो
देखा यही कि फिर वो हुआ उम्र भर ख़राब
मंज़िल तो इक तरफ़ रही इतना ज़रूर है
इक दूसरे का हम ने किया है सफ़र ख़राब
होती नहीं वो पूरी तरह फिर कभी भी ठीक
हो जाए एक बार कोई चीज़ गर ख़राब
ऐ दिल मुझे पता है कि लाया है तू कहाँ
चल ख़ुद भी अब ख़राब हो मुझ को भी कर ख़राब
इस कारोबार-ए-इश्क़ में ऐसी है क्या कशिश
पहले पिदर ख़राब हुआ फिर पिसर ख़राब
इक दिन भी आशियाँ में न गुज़रा सुकून से
करते रहे हैं मुझ को मिरे बाल-ओ-पर ख़राब
रह रह के याद आती है उस्ताद की ये बात
करती है आरज़ू-ए-कमाल-ए-हुनर ख़राब
इस तीरा-ख़ाक-दाँ के लिए क्या बिला सबब
सदियों से हो रहे हैं ये शम्स-ओ-क़मर ख़राब
लगता है इन को ज़ंग किसी और रंग का
किस ने कहा कि होते नहीं सीम-ओ-ज़र ख़राब
इक क़द्र-दाँ मिला तो ये सोचा कि आज तक
होते रहे कहाँ मिरे लाल-ओ-गुहर ख़राब
ख़ामोश और उदास हो 'बासिर' जो सुब्ह से
आई है आज फिर कोई घर से ख़बर ख़राब
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