ख़ामुशी जिस दम फ़ज़ा में रक़्स फ़रमाने लगी
ख़ामुशी जिस दम फ़ज़ा में रक़्स फ़रमाने लगी
फूल पर शबनम के गिरने की सदा आने लगी
महव-ए-हैरत है निगाह-ए-शौक़ भी ये देख कर
उन के सर पे धूप आई और घटा छाने लगी
गर्मी-ए-लब की ज़रूरत जब पड़ी रुख़्सार को
चश्म-ए-पुर-नम हसरतों की आग बरसाने लगी
रख दिए तक़दीर के सारे सितारे तोड़ कर
जब हक़ीक़त आइना क़िस्मत को दिखलाने लगी
रतजगों के दश्त-ए-वहशत में भटकती रह गई
नींद भी आँखों के दर पे आ के पछताने लगी
इस क़दर तारीकियाँ हैं रौशनी के रूप में
तीरगी तीरा-सिफ़त होने पे शरमाने लगी
उम्र भर करती रही मंज़िल हमारी जुस्तुजू
जब नज़र के सामने आई तो कतराने लगी
दिन भी सारे एक जैसे रात भी यकसाँ 'शकील'
इस तरह जीने से अब तो ज़ीस्त उकताने लग्गी
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