ख़ुद तमाशा बन गई चश्म-ए-तमाशाई कि बस
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ख़ुद तमाशा बन गई चश्म-ए-तमाशाई कि बस
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
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ख़ुद तमाशा बन गई चश्म-ए-तमाशाई कि बस
संग-ए-दर पर आज की है वो जबीं-साई कि बस
तोड़ डाला मैं ने आख़िर उस का कज-अक्स आइना
वर्ना वो यूँ था अजब महव-ए-तमाशाई कि बस
ऐसा लगता है कि बज़्म-ए-नाज़ में तन्हा हूँ मैं
चश्म-ए-बीना हो तो है वो बज़्म-आराई कि बस
ज़र्रे ज़र्रे की ज़बाँ पर नग़्मा-ए-जाँ-सोज़ है
दश्त-ज़ार-ए-ग़म ने ऐसी ख़ाक छनवाई कि बस
अजनबी लगने लगा है सुब्ह-ए-ख़ंदाँ का जमाल
यूँ हुई रुख़्सत मिरी आँखों की बीनाई कि बस
दूर से जब साहिल-ए-उम्मीद-ओ-यास आया नज़र
दफ़अ'तन इक मौज कश्ती से वो टकराई कि बस
इस क़दर हैबत-ज़दा था अहद-ए-तर्क-ए-दोस्ती
अव्वल अव्वल तो तबीअ'त ऐसी घबराई कि बस
ताएर-ए-सिदरा भी ख़ाइफ़ था मिरी परवाज़ से
आ के मंज़िल के क़रीब इक चोट वो खाई कि बस
आज तक उभरी नहीं है कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ
आब-जू-ए-दर्द में थी ऐसी गहराई कि बस
मैं कि ख़्वाब-ए-नाज़ में आसूदा शब होने को था
सूर-ए-इस्राफ़ील की ऐसी सदा आई कि बस
रफ़्ता रफ़्ता जल के ख़ाकिस्तर हुई इक़लीम-ए-जाँ
छट गए बादल मगर फिर धूप वो छाई कि बस
उक़्दा-ए-हैरत 'मुज़फ़्फ़र' जिस घड़ी खुलने को था
ज़िंदगी ने कान में वो बात बतलाई कि बस
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