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किस क़दर मसअला-ए-शाम-ओ-सहर बदला है

एज़ाज़ अफ़ज़ल

किस क़दर मसअला-ए-शाम-ओ-सहर बदला है

एज़ाज़ अफ़ज़ल

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    किस क़दर मसअला-ए-शाम-ओ-सहर बदला है

    जब ज़रा ज़ाविया-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बदला है

    सम्त-ए-मंज़िल का तअ'य्युन नहीं दो गाम की बात

    कितने मोड़ आए हैं जब तर्ज़-ए-सफ़र बदला है

    अपनी आवाज़ पे हम चौंक उठे हैं ख़ुद भी

    इक ज़रा लहजा-ए-एहसास अगर बदला है

    दश्त में भी कभी इस तरह जी लगता था

    अब के दीवानगी बदली है कि घर बदला है

    गया है रसन-ओ-दार के मा'मूल में फ़र्क़

    जब कभी ज़ाब्ता-ए-गर्दन-ओ-सर बदला है

    अब वो यक-रंगी-ए-माहौल की तल्ख़ी तो नहीं

    हम ने मय बदली हो जाम मगर बदला है

    इंक़लाब आया है इस तरह भी घर में अक्सर

    दर से दीवार दीवार से दर बदला है

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