किसी बुज़ुर्ग पहाड़ी पे तू उतरता है
किसी बुज़ुर्ग पहाड़ी पे तू उतरता है
क़दीम दश्त-ए-ग़शी में ख़िराम करता है
शजर की छाल उतरते फ़क़ीर रोने लगा
बदन की खाल उधेड़ो तो फिर निखरता है
मसाम चीर के उगती है जिस्म पर उतरन
हमारा ज़हर ख़द-ओ-ख़ाल से उतरता है
उठा हिजाब जला दे चराग़ मा'बद के
जहान-ए-गर्द तिरा अब क़ियाम करता है
अजीब ख़ाक चमकती है अपने चेहरे पर
ये आइना तो हमें देख कर सँवरता है
हमारे जिस्म पे कंदा हज़ार-हा नक़्शे
हमारी आँख से हर रास्ता गुज़रता है
कहीं से हर्फ़ उतरता है बौर की सूरत
जो मुझ से बाँझ दरख़्तों की शाख़ें भरता है
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