कुलाल-ए-गर्दूं अगर जहाँ में जो ख़ाक मेरी का जाम करता
कुलाल-ए-गर्दूं अगर जहाँ में जो ख़ाक मेरी का जाम करता
तो मैं सनम के लबों से मिल कर अजब ही ऐश-ए-मुदाम करता
जो पाता लज़्ज़त बिसान-ए-मस्ताँ मय-ए-मोहब्बत से तेरी ज़ाहिद
तो ख़ानका से निकल के अपनी वो मय-कदे में क़याम करता
वो बज़्म अपनी थी मय-कशी की फ़रिश्ते हो जाते मस्त-ओ-बे-ख़ुद
जो शैख़ जी वाँ से बच के आते तो फिर मैं उन को सलाम करता
जो ज़ुल्फ़ें मुखड़े पे खोल देता सनम हमारा तो फिर ये गर्दूं
न दिन दिखाता न शब बताता न सुब्ह लाता न शाम करता
वो बज़्म अपनी थी मय-ख़ोरी की फ़रिश्ते हो जाते मस्त-ओ-बे-ख़ुद
जो शैख़ जी बच के वाँ से आते तो मैं फिर उन को सलाम करता
'नज़ीर' आख़िर को हार कर मैं गली में उस की गया था बिकने
तमाशा होता जो मुझ को ले कर वो शोख़ अपना ग़ुलाम करता
- Deewan-e-Nazeer Akbarabadi
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