क्या कोई समझे मिरे हालात जब कहता हूँ मैं
क्या कोई समझे मिरे हालात जब कहता हूँ मैं
इक मुसलसल रौशनी के साए में रहता हूँ मैं
जब हवा चलती है उड़ता हूँ मुख़ालिफ़ सम्त में
और जब थम जाए तब अपनी तरफ़ बहता हूँ मैं
तेरे मेरे लहजे का ये फ़र्क़ कितना साफ़ है
तू मुझे कहती है तू और मैं तुझे कहता हूँ मैं
आप से मैं ख़ुश हूँ तो ये आप पर एहसान है
इक अज़िय्यत है ख़ुशी भी हँस के जो सहता हूँ मैं
शाम के ढलने से पहले मैं कभी पीता नहीं
ये भी सच है दोपहर से तिश्ना-लब रहता हूँ मैं
कूज़ा-गर ये सोचता है ये उसी का काम है
इस सलीक़े से कभी बनता कभी ढहता हूँ मैं
- पुस्तक : Word File Mail By Salim Saleem
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