क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए
क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए
लेकिन जो हासिल-ए-ग़म-ए-दिल थे वो कम हुए
ऐ तिश्नगी-ए-दर्द कोई ग़म कोई करम
मुद्दत गुज़र गई है इन आँखों को नम हुए
मिलने को एक इज़्न-ए-तबस्सुम तो मिल गया
कुछ दिल ही जानता है जो दिल पर सितम हुए
दामन का चाक चाक-ए-जिगर से न मिल सका
कितनी ही बार दस्त-ओ-गरेबाँ बहम हुए
किस को है ये ख़बर कि ब-उनवान-ए-ज़िंदगी
किस हुस्न-ए-एहतिमाम से मस्लूब हम हुए
अर्बाब-ए-इश्क़-ओ-अहल-ए-हवस में है फ़र्क़ क्या
सब ही तिरी निगाह में जब मोहतरम हुए
'शाइर' तुम्हीं पे तंग नहीं अरसा-ए-हयात
हर अहल-ए-फ़न पे दहर में ऐसे करम हुए
- पुस्तक : Naya daur (पृष्ठ 261)
- रचनाकार : Qamar Sultana
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