क्या तुझ को बताएँ ऐ हमदम क्या हश्र का सामाँ होता है
क्या तुझ को बताएँ ऐ हमदम क्या हश्र का सामाँ होता है
जब इश्क़ की जाँ पर बनती है जब हुस्न पशेमाँ होता है
जो आँख से आँसू बहता है वो नंग-ए-ग़म-ए-जाँ होता है
वो अश्क गुहर कहलाता है पलकों पे जो रक़्साँ होता है
क्या क्या न ब-नाम-ए-लुत्फ़-ओ-करम ऐ गर्दिश-ए-दौराँ होता है
तख़रीब के सामाँ होते हैं ता'मीर का उनवाँ होता है
क्या तुझ को ख़बर है ऐ नासेह क्या चीज़ मोहब्बत होती है
क्यूँकर शब-ए-फ़ुर्क़त कटती है और क्या ग़म-ए-हिज्राँ होता है
ऐ अहल-ए-चमन अब तुम ही कहो ये कार-ए-जुनूँ पेशा तो नहीं
तंज़ीम-ए-नशेमन होती है बर्बाद गुलिस्ताँ होता है
बर्बाद जफ़ाओं की आँधी यूँ होश उड़ाती है मेरे
जिस तरह हवा से इक आँचल गुलशन में परेशाँ होता है
कुछ दर्द वफ़ा की राहों में हमराह वो चलते तो हैं मगर
हो जाते हैं ओझल नज़रों से इक मोड़ नुमायाँ होता है
उस ज़ख़्म की लज़्ज़त क्या हो बयाँ उस दर्द का आलम क्या कहिए
जिस वक़्त किसी का तीर-ए-नज़र पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होता है
माना कि भँवर में कश्ती है और यूरिश-ए-तूफ़ाँ भी है मगर
क्या ख़ौफ़ 'कमाल' अब मौजों का अल्लाह निगहबाँ होता है
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