मआल-ए-जौर समझे और न अंजाम-ए-वफ़ा समझे
मआल-ए-जौर समझे और न अंजाम-ए-वफ़ा समझे
न उन का मुद्दआ' जाना न अपना मुद्दआ' समझे
तुम इस मदहोश को क्यों शाकी-ए-जौर-ओ-वफ़ा समझे
जो मसरूफ़-ए-दुआ रह कर न मक़्सूद-ए-दुआ समझे
ज़माने में हज़ारों सूरतें हैं मौत आने की
हमें क्यों कोई उस का कुश्ता-ए-तेग़-ए-अदा समझे
वफ़ा का तज़्किरा भी जुर्म है क्या क्यों बिगड़ते हो
ज़रा सोचो तो क्या मैं ने कहा और आप क्या समझे
अगर तू दश्त-ए-ग़ुर्बत में मिरा हो हम-सफ़र नासेह
तो रहज़न तो कुजा रेग-ए-रवाँ को रहनुमा समझे
जहाँ में बे-नियाज़ी की उसे शानें दिखाना हैं
वो क्यों पाबंद-ए-फ़ितरत हो वो क्यों अच्छा बुरा समझे
किसी की शोख़ी-ए-बर्क़-ए-नज़र का है ये आईना
'मुनीर' इस इज़्तिराब-ए-दिल को मेरे कोई क्या समझे
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