मैं पहुँचा अपनी मंज़िल तक मगर आहिस्ता आहिस्ता
मैं पहुँचा अपनी मंज़िल तक मगर आहिस्ता आहिस्ता
अब्दुल मन्नान तरज़ी
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मैं पहुँचा अपनी मंज़िल तक मगर आहिस्ता आहिस्ता
किया है पूरा इक मुश्किल सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
नहीं आसाँ हरीम-ए-नाज़ तक की थी रसाई भी
हुए तस्ख़ीर लेकिन बाम-ओ-दर आहिस्ता आहिस्ता
मता-ए-अज़्म-ए-मोहकम ही का इस को मो'जिज़ा कहिए
कि मंज़िल बन गई ख़ुद रहगुज़र आहिस्ता आहिस्ता
बहुत ही सख़्त गरचे ज़िंदगी के मा'रके थे भी
खुला है मुझ पे हर बाब-ए-ज़फ़र आहिस्ता आहिस्ता
रहा है रिश्ता ऐसा संग-ओ-तेशा से कि ले आया
मैं जू-ए-शीर इक शीरीं के घर आहिस्ता आहिस्ता
हुनर ऐसा चराग़ों के धुआँ पीने से आया है
कि शबनम में बदल जाते शरर आहिस्ता आहिस्ता
नहीं कुछ काम आई है किसी की कीमिया-साज़ी
बने क़तरे पसीने के गुहर आहिस्ता आहिस्ता
सितारों को बनाना आफ़्ताब आसाँ नहीं होता
किए कुछ मा'रके ऐसे भी सर आहिस्ता आहिस्ता
सताइश नुक्ता-चीनी और सिले से बे-नियाज़ाना
मैं बस चलता रहा अपनी डगर आहिस्ता आहिस्ता
फ़क़त इक सई-ए-पैहम ज़िंदगी का अपनी उनवाँ है
शब-ए-तारीक से फूटी सहर आहिस्ता आहिस्ता
फ़लक के चाँद तारों से रक़ाबत भी नहीं लेकिन
किया दामन को ख़ुद रश्क-ए-क़मर आहिस्ता आहिस्ता
गुल-ओ-ग़ुन्चा कि रंग-ओ-बू में पा लेता हूँ सब उन में
खिले हैं इस तरह दाग़-ए-जिगर आहिस्ता आहिस्ता
हिसार-ए-ना-शनासाँ हो कि बज़्म-ए-नुक्ताचीनाँ हो
मुझे आ ही गया करना बसर आहिस्ता आहिस्ता
मैं दिल्ली लखनऊ में गरचे पहले ही से था लेकिन
हुआ हूँ घर में 'तरज़ी' मो'तबर आहिस्ता आहिस्ता
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