मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में रहती हूँ
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में रहती हूँ
ज़मीं पे होते हुए आसमाँ में रहती हूँ
है जिस के हाथ में ये बाग-डोर आलम की
बहुत सुकून से उस की अमाँ में रहती हूँ
ख़बर जो लेने चले हो ये हालत-ए-दिल है
मुझे ख़बर ही कहाँ किस जहाँ में रहती हूँ
वरक़ वरक़ पे हैं फैले हुरूफ़-ए-ना-बीना
मोहब्बतों की हर इक दास्ताँ में रहती हूँ
हुसूल-ए-इश्क़ की सब काविशें हैं ला-हासिल
मैं दस्तरस से परे इक जहाँ में रहती हूँ
हर इक तलब से हुई बे-नियाज़-ओ-बेगाना
बसा के दिल में उसे आस्ताँ में रहती हूँ
सफ़ीर बन के हवाओं की दूर तक जाऊँ
मैं मुश्त-ए-ख़ाक हूँ मौज-ए-रवाँ में रहती हूँ
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