मेहराब न क़िंदील न असरार न तमसील
मेहराब न क़िंदील न असरार न तमसील
कह ऐ वरक़-ए-तीरा कहाँ है तिरी तफ़्सील
इक धुँद में गुम होती हुई सारी कहानी
इक लफ़्ज़ के बातिन से उलझती हुई तावील
मैं आख़िरी परतव हूँ किसी ग़म के उफ़ुक़ पर
इक ज़र्द तमाशे में हुआ जाता हूँ तहलील
वामाँदा-ए-वक़्त आँख को मंज़र न दिखा और
ज़िम्मे है हमारे अभी इक ख़्वाब की तश्कील
आसाँ हुए सब मरहले इक मौजा-ए-पा से
बरसों की फ़ज़ा एक सदा से हुई तब्दील
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