ज़बाँ रख ग़ुंचा साँ अपने दहन में
ज़बाँ रख ग़ुंचा साँ अपने दहन में
बंधी मुट्ठी चला जा इस चमन में
न खोल ऐ यार मेरा गोर में मुँह
कि हसरत है मिरी जागा कफ़न में
रखा कर हाथ दिल पर आह करते
नहीं रहता चराग़ ऐसी पवन में
जले दिल की मुसीबत अपने सुन कर
लगी है आग सारे तन बदन में
न तुझ बिन होश में हम आए साक़ी
मुसाफ़िर ही रहे अक्सर वतन में
ख़िरद-मंदी हुई ज़ंजीर वर्ना
गुज़रती ख़ूब थी दीवाना-पन में
कहाँ के शम-ओ-परवाने गए मर
बहुत आतश-बजाँ थे इस चमन में
कहाँ आजिज़-सुख़न क़ादिर-सुख़न हूँ
हमें है शुबह यारों के सुख़न में
गुदाज़ इश्क़ में ब भी गया 'मीर'
यही धोका सा है अब पैरहन में
- पुस्तक : MIRIYAAT - Diwan No- 1, Ghazal No- 0301
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