कब से नज़र लगी थी दरवाज़ा-ए-हरम से
कब से नज़र लगी थी दरवाज़ा-ए-हरम से
पर्दा उठा तो लड़ियाँ आँखें हमारी हम से
सूरत-गर-ए-अजल का क्या हाथ था कहे तो
खींची वो तेग़-ए-अबरू फ़ौलाद के क़लम से
सोज़िश गई न दिल की रोने से रोज़-ओ-शब के
जलता हूँ और दरिया बहते हैं चश्म-ए-नम से
ताअ'त का वक़्त गुज़रा मस्ती में आब रज़ की
अब चश्म-दाश्त उस के याँ है फ़क़त करम से
कुढि़ए न रोइए तो औक़ात क्यूँके गुज़रे
रहता है मश्ग़ला सा बार-ए-ग़म-ओ-अलम से
मशहूर है समाजत मेरी कि तेग़ बरसी
पर मैं न सर उठाया हरगिज़ तिरे क़दम से
बात एहतियात से कर ज़ाएअ' न कर नफ़स को
बालीदगी-ए-दिल है मानिंद-ए-शीशा दम से
क्या क्या तअब उठाए क्या क्या अज़ाब देखे
तब दिल हुआ है उतना ख़ूगर तिरे सितम से
हस्ती में हम ने आ कर आसूदगी न देखी
खुलतीं न काश आँखें ख़्वाब ख़ुश अदम से
पामाल कर के हम को पछताओगे बहुत तुम
कमयाब हैं जहाँ में सर देने वाले हम से
दिल दो हो 'मीर' साहब उस बद-मआ'श को तुम
ख़ातिर तो जम्अ' कर लो टक क़ौल से क़सम से
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 1, ग़ज़ल नंo- 0475
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