ग़लत है इश्क़ में ऐ बुल-हवस अंदेशा राहत का
ग़लत है इश्क़ में ऐ बुल-हवस अंदेशा राहत का
रिवाज इस मुल्क में है दर्द-ओ-दाग़-ओ-रंज-ओ-कुलफ़त का
ज़मीं इक सफ़्हा-ए-तस्वीर बे-होशाँ से माना है
ये मज्लिस जब से है अच्छा नहीं कुछ रंग सोहबत का
जहाँ जल्वे से उस महबूब के यकसर लबालब है
नज़र पैदा कर अव्वल फिर तमाशा देख क़ुदरत का
हनूज़ आवारा-ए-लैला है जान-ए-रफ़्ता मजनूँ की
मूए पर भी रहा होता नहीं वाबस्ता उल्फ़त का
हरीफ़-ए-बे-जिगर है सब्र वर्ना कल की सोहबत में
नियाज़-ओ-नाज़ का झगड़ा गिरो था एक जुरअत का
निगाह-ए-यास भी इस सैद-ए-अफ़्गन पर ग़नीमत है
निहायत तंग है ऐ सैद-ए-बिस्मिल वक़्त फ़ुर्सत का
ख़राबी दिल की इस हद है कि ये समझा नहीं जाता
कि आबादी भी याँ थी या कि वीराना था मुद्दत का
निगाह-ए-मस्त ने उस की लुटाई ख़ानका सारी
पड़ा है बरहम अब तक कारख़ाना ज़ोहद-ओ-ताअत का
क़दम टक देख कर रख 'मीर' सर दिल से निकालेगा
पलक से शोख़-तर काँटा है सहरा-ए-मोहब्बत का
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 1, ग़ज़ल नंo- 0122
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