हैं बा'द मिरे मर्ग के आसार से अब तक
हैं बा'द मिरे मर्ग के आसार से अब तक
सूखा नहीं लोहू दर-ओ-दीवार से अब तक
रंगीनी-ए-इश्क़ इस के मिले पर हुई मा'लूम
सोहबत न हुई थी किसी खूँ-ख़्वार से अब तक
कब से मुतहम्मिल है जफ़ाओं का दिल-ए-ज़ार
ज़िन्हार-वफ़ा हो न सकी यार से अब तक
अबरू ही की जुम्बिश ने ये सुथराओ किए हैं
मारा नहीं उन ने कोई तलवार से अब तक
वा'दा भी क़यामत का भला कोई है वा'दा
पर दिल नहीं ख़ाली ग़म-ए-दीदार से अब तक
मुद्दत हुई घुट घुट के हमें शहर में मरते
वाक़िफ़ न हुआ कोई उस असरार से अब तक
बरसों हुए दिल-सोख़्ता बुलबुल को मूए लेक
इक दूद सा उठता है चमन-ज़ार से अब तक
क्या जानिए होते हैं सुख़न लुत्फ़ के कैसे
पूछा नहीं उन ने तो हमें प्यार से अब तक
उस बाग़ में अग़्लब है कि सरज़द न हुआ हो
यूँ नाला-कसो मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से अब तक
ख़त आए पे भी दिन है सियह तुम से हमारा
जाता नहीं अंधेर ये सरकार से अब तक
निकला था कहीं वो गुल-ए-नाज़ुक शब-ए-मह में
सो कोफ़्त नहीं जाती है रुख़्सार से अब तक
देखा था कहीं साया तिरे क़द का चमन में
हैं 'मीर'-जी आवारा-परी दार से अब तक
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 1, ग़ज़ल नंo- 0255
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