मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी
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मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
लगाए ऐ सनम जब तक न तू सीने को सीने से
फ़लक ने शादमाँ देखा जिसे आया उसी के सर
ख़ुदा महफ़ूज़ हर इंसाँ को रक्खे इस कमीने से
जो ले जाते हैं दिल मेरा बचाना ठेस से उस को
वो है ऐ संग-दिल नाज़ुक ज़ियादा आबगीने से
न होगी दूर ग़श मेरी गुलाब-ओ-मुश्क़-ओ-अंबर से
मिरे रुख़ को तू धो ऐ गुल-बदन अपने पसीने से
कहीं ये साफ़ होता है कुदूरत और कीने से
अगर ज़ख़्म-ए-जिगर मिल भी गया दुश्मन के सीने से
दिल इक दहने रहा गर दूसरा दाइम रहा बाएँ
न दो बाहम हुए दिल गो मिला सीना भी सीने से
कोई रंज-ओ-अलम आए न दिल के पास ऐ साक़ी
जो हो आग़ाज़-ए-मय-नोशी मोहर्रम के महीने से
तू चाहे दूसरों को और हम मरते फिरें तुझ पर
हमारे वास्ते मरना है बेहतर ऐसे जीने से
समझना चाहिए कीने से सीना है भरा उस का
किया है 'मशरिक़ी' इंकार जिस ने मय के पीने से
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