मिरे ऐबों की इस्लाहें हुआ कीं बहस-ए-दुश्मन से
मिरे ऐबों की इस्लाहें हुआ कीं बहस-ए-दुश्मन से
लिया है राहबर का काम अक्सर मैं ने दुश्मन से
वो मोती हूँ जो खो जाता है साहिल में समुंदर के
वो दाना हूँ बिखर के दूर होता है जो ख़िर्मन से
फ़ज़ा सहरा की आँखों से जो देखें हैं वो कह देंगे
गुल-ए-ख़ुद-रौ का आलम कम नहीं गुल-हा-ए-गुलशन से
किसी की दोस्ती यूँ ख़ाक में कोई मिलाता है
मिरे बारे में तुम और मशवरे लेते हो दुश्मन से
तमाशा देखिए महशर में क़ातिल मुझ से लड़ता है
कि अपने ख़ून का धब्बा छुड़ा दे मेरे दामन से
ज़मीं से आसमाँ तक छा रही जो ये उदासी है
बगूला कोई उट्ठा है किसी बेकस के मदफ़न से
क़रीब-ए-दर पहुँच कर यूँ ग़श आने का सबब आख़िर
ये मुमकिन है झलक उस की नज़र आई हो चिलमन से
हर आफ़त से चमन महफ़ूज़ है अब तो ये सुनता हूँ
अदावत बर्क़-ए-सरसर को थी मेरे ही नशेमन से
ग़रज़ क्या बहस-ओ-हुज्जत से हमारा तो ये मशरब है
जहाँ तक हो किनारे ही रहे शैख़-ओ-बरहमन से
'हफ़ीज़' उस को समझ ले ख़ूब हैं ये काम की बातें
अगर रिफ़अत-तलब है झुक के मिल हर दोस्त दुश्मन से
- पुस्तक : Kulliyat-e-Hafeez Jaunpuri (पृष्ठ Ghazal Number-251 Page Number-216)
- रचनाकार : Tufail Ahmad Ansari
- प्रकाशन : Qaumi Council Baraye Farogh-e-urdu Zaban (2010)
- संस्करण : 2010
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