मोहब्बत का रग-ओ-पै में मिरी रूह-ए-रवाँ होना
मोहब्बत का रग-ओ-पै में मिरी रूह-ए-रवाँ होना
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
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मोहब्बत का रग-ओ-पै में मिरी रूह-ए-रवाँ होना
मुबारक हर नफ़स को इक हयात-ए-जावेदाँ होना
हमारे दिल को आए किस तरह फिर शादमाँ होना
तिरी नज़रों ने सीखा ही नहीं जब मेहरबाँ होना
तिरे कूचे में होना उस पे तेरा आस्ताँ होना
मुबारक तेरे कूचे की ज़मीं को आसमाँ होना
ये हालत है कि बेदारी भी है इक ख़्वाब का आलम
मआज़-अल्लाह अपना ख़ूगर-ए-ख़्वाब-ए-गिराँ होना
उसे ख़ुश कर सकेंगी क्या बहारें ज़िंदगानी की
चमन में जिस ने देखा हो बहारों का ख़िज़ाँ होना
जो बद-क़िस्मत तिरे ग़म की मसर्रत से हैं ना-वाक़िफ़
वो क्या जानें किसे कहते हैं दिल का शादमाँ होना
मुझे आँखें दिखाएगी भला क्या गर्दिश-ए-दौराँ
मिरी नज़रों ने देखा है तिरा ना-मेहरबाँ होना
जबीं ओ आस्ताँ के दरमियाँ सज्दे हों क्यूँ हाइल
जबीं को हो मयस्सर काश जज़्ब-ए-आस्ताँ होना
हवस-कारान-ए-इशरत आह क्या समझेंगे ऐ 'अख़्तर'
बहुत दुश्वार है ज़ौक़-ए-अलम का राज़-दाँ होना
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