मोहब्बत की मुकम्मल तौर पर तशरीह करता है
मोहब्बत की मुकम्मल तौर पर तशरीह करता है
ये दिल जब भी धड़कता है तिरी तस्बीह करता है
उसे क्या दिल-लगी का नाम देना भी मुनासिब है
हमारे साथ वो जो मुफ़्त में तफ़रीह करता है
बसा-औक़ात कुछ ग़लती की गुंजाइश नहीं होती
तो फिर वो ग़लतियों की किस लिए तसहीह करता है
हमारी आफ़ियत भी है उसी की मान लेने में
तभी तो पेश रोज़ाना कोई तौज़ीह करता है
मुझे ये शे'र उस कच्चे घड़े के नाम करने हैं
कहानी में वही पैदा कोई तलमीह करता है
ज़रूरत पड़ भी सकती है कहीं रम्ज़-ओ-किनाए की
वो पागल-पन में हर इक बात की तसरीह करता है
मियाँ 'मसऊद' पहले दिन से ही ये सर का सौदा भी
मिरी शोरीदगी को अव्वलीं तरजीह करता है
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