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मुझे पूछा है आ कर तुम ने उस अख़्लाक़-ए-कामिल से

एहसान दानिश

मुझे पूछा है आ कर तुम ने उस अख़्लाक़-ए-कामिल से

एहसान दानिश

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    मुझे पूछा है कर तुम ने उस अख़्लाक़-ए-कामिल से

    कि मैं शर्मिंदा हो कर रह गया अंदाज़ा-ए-दिल से

    नज़र के रुख़ को या तो दिल की जानिब फेर लेने दो

    नहीं तो सामने जाओ उठ कर पर्दा-ए-दिल से

    उमीदें उठ रही हैं सैकड़ों उम्मीदवारों की

    मैं तन्हा हूँ मगर तन्हा नहीं उठ्ठूँगा महफ़िल से

    अमीर-ए-कारवाँ जिस रौशनी के बल पे बढ़ता है

    निकलता है वो तारा सुब्ह होते ख़ाक-ए-मंज़िल से

    उन्हें दुनिया अब अश्क-ए-ग़म कहे या ख़ून की बूँदें

    मोहब्बत ने चराग़ आँखों में ला कर रख दिए दिल से

    अब उस नंग-ए-मोहब्बत से किनारा भी तो मुश्किल है

    मुझे जिस की मोहब्बत का यक़ीं आया था मुश्किल से

    अभी तो शाम है आग़ाज़ है परवाना-सोज़ी का

    कोई इस शम्अ' को आगाह कर दो सुब्ह-ए-महफ़िल से

    अभी तहक़ीक़ बेहतर है कि फिर शिकवा अबस होगा

    कि मीर-ए-कारवाँ वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-मंज़िल से

    मिटाने से कभी नक़्श-ए-मोहब्बत मिट नहीं सकता

    मिरा अफ़्साना निकलेगा तिरी रूदाद-ए-महफ़िल से

    ग़नीमत है नज़र रौशन है दिल अब तक धड़कता है

    मोहब्बत में तो ये आसानियाँ मिलती हैं मुश्किल से

    उफ़ुक़ के आइने में हो हो धारे के साए में

    नज़र आती हैं तूफ़ानों की सरहद जैसे साहिल से

    तिरा जल्वा तो क्या तू ख़ुद भी तफ़रीह-ए-नज़र होता

    मिरी आँखों ने अब तक भीक माँगी ही नहीं दिल से

    सितम की आख़िरी मंज़िल पे इज़हार-ए-पशेमानी

    निकल आते हैं आँसू यूँ तो हर दुखते हुए दिल से

    मैं इक ज़र्रा हूँ लेकिन वुसअ'त-ए-सहरा से वाक़िफ़ हूँ

    उठा सकता नहीं ख़ुद मीर-ए-महफ़िल मुझ को महफ़िल से

    तहय्या कर लिया तंग के गो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का

    मगर अब फ़िक्र है ये ख़त उन्हें लिक्खेंगे किस दिल से

    मुझे 'एहसान' मेरे क़ाफ़िले वालों ने अब समझा

    कि ये ज़र्रा सितारा बन गया तक़दीर-ए-मंज़िल से

    स्रोत :
    • पुस्तक : Ghazaliyat-e-ahsaan Danish (पृष्ठ 260)
    • रचनाकार : Shabnam Parveen
    • प्रकाशन : Asghar Publishers (2006)
    • संस्करण : 2006

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