मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
मुंतज़िर था वो तो जुस्त-ओ-जू में ये आवारा था
शेफ़्ता तेरा ही था जो साबित-ओ-सय्यारा था
है जो हसरत तो सरापा चश्म होने की हमें
हासिल इस आईना-ख़ाना में फ़क़त नज़्ज़ारा था
जब शब-ए-मह में चकोर उड़ता है मर जाते हैं हम
पुतलियों का अपनी भी तारा कोई रूख़्सारा था
खोल कर दिल जब मैं रोता था फ़िराक़-ए-यार में
चश्म-ए-तर मम्बा थी हर मूए-ए-मिज़ा फ़व्वारा था
सैल-ए-गिर्या ने ये किस के दी समुंदर को शिकस्त
जो हबाब आया नज़र इक वाज़गूँ नक़्क़ारा था
एक शब तो वस्ल-ए-जानाँ की तवाज़ो ऐ फ़लक
चार दिन मेहमान तेरे घर में मैं बे-चारा था
रोज़-ओ-शब के हाल का लिखता था परचा रोज़-ओ-शब
कातिब-ए-आमाल मेरी डेवढ़ी का हरकारा था
पीटना सर अपने मातम में अज़ीज़ो यार का
क़िलआ-ए-कुंज-ए-लहद की फ़त्ह का नक़्क़ारा था
अहद-ए-तिफ़्ली से जुनून-ए-इश्क़ कामिल है शफ़ीक़
शाख़-ए-नख़्ल-ए-बेद-ए-मजनूँ से मिरा गहवारा था
जान-ए-शीरीं मुज़्द जू-ए-शीर में तेशा को दी
हौसला से अपने बाहर कोहकन बे-चारा था
हालत-ए-दिल को बयाँ करता किसी से मैं तो क्या
इश्क़ में इक मुसहफ़-ए-रुख़्सार के सीपारा था
ये हुआ ज़ाहिर अना लैला-ए-मजनूँ से हमें
अपना दीवाना था अपने वास्ते आवारा था
हाल अपना ऐ सनम अपनी जुदाई में न पूछ
सीना ओ सर था हमारा और संग-ए-ख़ारा था
कूचा-ए-क़ातिल में जब शौक़-ए-शहादत ले गया
सर न था गर्दन पर अपने बार-ए-सद-पुश्तारा था
लोटता था इस में बद-ख़़ूई से मैं मानिंद-ए-अश्क
शोख़ी-ए-तिफ़्लान से जुम्बाँ मिरा गहवारा था
शान-ए-इश्क़ औला है मजनूँ दूदमान-ए-इश्क़ से
ना-ख़लफ़ ना-क़ाबिल ओ नालायक़ ओ नाकारा था
अहल-ए-आलम से हमेशा 'आतिश' ईज़ाएँ हुईं
मर्दुम-ए-दुनिया नमक थे मैं दिल-ए-सद-पारा था
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