न आह करते हुए और न वाह करते हुए
न आह करते हुए और न वाह करते हुए
जिएँगे ज़ब्त को अपनी पनाह करते हुए
वो एक रंग जो छलकेगा उस की आँखों से
वो जीत लेगा मुझे इक निगाह करते हुए
बदल भी सकती है दुनिया ये जानता हूँ मगर
मैं हार जाऊँगा उस से निबाह करते हुए
मैं सब हिसाब रखूँगा सफ़ेदियों से परे
अब अपनी फ़र्द-ए-अमल को सियाह करते हुए
तिरे बग़ैर मुझे ज़िंदगी न रास आई
सो जी रहा हूँ मैं ख़ुद को तबाह करते हुए
- पुस्तक : Tabani (पृष्ठ 225)
- रचनाकार : Mubeen Mirza
- प्रकाशन : Academy Bazyaft (2015)
- संस्करण : 2015
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