न दे फ़रेब-ए-वफ़ा ले न इम्तिहाँ अपना
न दे फ़रेब-ए-वफ़ा ले न इम्तिहाँ अपना
अब्दुर्रशीद ख़ान कैफ़ी महकारी
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न दे फ़रेब-ए-वफ़ा ले न इम्तिहाँ अपना
है बे-नियाज़-ए-करम यार-बद-गुमाँ अपना
पहुँच चुके थे सर-ए-शाख़-ए-गुल असीर हुए
लुटा है सामने मंज़िल के कारवाँ अपना
हर एक ज़र्रा-ए-आलम है और सज्दा-ए-शौक़
रखें उठा के वो अब संग-ए-आस्ताँ अपना
वही है आलम-ए-अफ़्सुर्दगी वही हम हैं
ख़ुशी का जिस में गुज़र हो वो दिल कहाँ अपना
निगाह-ए-यास है तफ़्सीर-ए-सद-हज़ार नियाज़
सुकूत लाख बयानों का इक बयाँ अपना
फ़रेब ही सही तस्कीन कुछ तो है दिल को
रहे ख़ुदा करे क़ाएम यूँही गुमाँ अपना
वफ़ा का नाम ही दुनिया से उठ चुका 'कैफ़ी'
कहाँ ज़माने में अब कोई क़द्र-दाँ अपना
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