न जाने कितनी रिवायतें मुंहदिम हुईं हैं
रोचक तथ्य
मासिक अदब-ए-लतीफ़, फ़रवरी-मार्च, 2008
न जाने कितनी रिवायतें मुंहदिम हुईं हैं
बपा जहाँ भी है शोर-ए-महशर खड़ा हुआ हूँ
ये कैसा मंज़र है उस को किस ज़ाविए से देखूँ
कि ख़ुद भी इस दाएरे के अंदर खड़ा हुआ हूँ
अब इस नज़ारे की ताब लाऊँ तो कैसे लाऊँ
वही है मैदान वही है लश्कर खड़ा हुआ हूँ
हज़ार तूफ़ान-ए-बर्क़-ओ-बाराँ हैं साहिलों पर
लिए हुए इक शिकस्ता लंगर खड़ा हुआ हूँ
- पुस्तक : Alami Urdu Adab, Jild 27 (पृष्ठ 145 (e)146 )
- रचनाकार : October 2008
- प्रकाशन : Publishers and Advertisers, Krishn Nagar, Delhi, (Nand Kishor Vikram)
- संस्करण : Nand Kishor Vikram
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