पुर-सोज़ जिगर के नाले भी दिल-सोज़ निकलते रहते हैं
पुर-सोज़ जिगर के नाले भी दिल-सोज़ निकलते रहते हैं
फ़ज़ल हुसैन साबिर
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पुर-सोज़ जिगर के नाले भी दिल-सोज़ निकलते रहते हैं
हाँ शम्अ' भी जलती रहती है परवाने भी जलते रहते हैं
ख़ुद्दाम-ए-हरीम-ए-नाज़ जो हैं अल्लाह रे उन की ख़ुश-बख़्ती
दीदार भी होता रहता है अरमाँ भी निकलते रहते हैं
ग़ुर्बत में वतन और अहल-ए-वतन की याद जब आ जाती है मुझे
दिल है कि तड़पता रहता है और अश्क भी ढलते रहते हैं
ऐ शैख़-ओ-बरहमन देखता हूँ दिन रात तुम्हारे मुर्दों को
ये ख़ाक में मिलते रहते हैं वो आग में जलते रहते हैं
आईना हुस्न-ए-सबीह भी क्या देखे कि वो वक़्त-ए-नज़्ज़ारा
दम भर नहीं जमते शौक़-ए-नज़र के पाँव फिसलते रहते हैं
ऐ शैख़-ए-हरम ए'जाज़ है ये पुर-कैफ़ निगाह-ए-साक़ी का
बा-होश तो गिरते रहते हैं बेहोश सँभलते रहते हैं
आराम-ओ-मुसीबत क्या शय है होता नहीं कुछ एहसास उन्हें
मंज़िल की जो धुन में हैं 'साबिर' दिन-रात वो चलते रहते हैं
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