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क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल

नज़ीर अकबराबादी

क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल

नज़ीर अकबराबादी

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    क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल

    है वफ़ा-पेशा तू मत कूचा-ए-जानाँ से निकल

    निकहत-ए-ज़ुल्फ़ ये किस की है कि जिस के आगे

    हुई ख़जलत-ज़दा बू सुम्बुल-ओ-रैहाँ से निकल

    गो बहार अब है वले रोज़-ए-ख़िज़ाँ बुलबुल

    यक-क़लम नर्गिस गुल जावेंगे बुसताँ से निकल

    इम्तिहाँ करने को यूँ दिल से कहा हम ने रात

    दिल-ए-ग़म-ज़दा इस काकुल-ए-पेचाँ से निकल

    खा के सौ पेच कहा मैं तो निकलने का नहीं

    मगर दुश्मन-ए-जाँ चल तू मिरे हाँ से निकल

    हो परेशानी से जिस की मुझे सौ जमइय्यत

    किस तरह जाऊँ मैं उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल

    लाख ज़िंदान-ए-पुर-आफ़ात में होता है वो क़ैद

    जो कोई जाता है इस तौर के ज़िंदाँ से निकल

    मुझ से मुमकिन नहीं महबूब की क़त्अ-ए-उल्फ़त

    गरचे मैं जाऊँगा इस आलम-ए-इम्काँ से निकल

    चाह में मुझ को ये मुर्शिद का है इरशाद 'नज़ीर'

    आबरू चाहे तो मत चाह-ए-ज़नख़दाँ से निकल

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