राख के ढेर पे क्या शो'ला-बयानी करते
राख के ढेर पे क्या शो'ला-बयानी करते
एक क़िस्से की भला कितनी कहानी करते
हुस्न इतना था कि मुमकिन ही न थी ख़ुद-निगरी
एक इम्कान की कब तक निगरानी करते
शोला-ए-जाँ को बुझाते यूँही क़तरा क़तरा
ख़ुद को हम आग बनाते तुझे पानी करते
फूल सा तुझ को महकता हुआ रखते शब भर
अपने साँसों से तुझे रात की रानी करते
नद्दियाँ देखें तो बस शर्म से पानी हो जाएँ
चश्म-ए-ख़ूँ-बस्ता से पैदा वो रवानी करते
सब से कहते कि ये क़िस्सा है पुराना साहब
आह की आँच से तस्वीर पुरानी करते
दर-ओ-दीवार बदलने में कहाँ की मुश्किल
घर जो होता तो भला नक़्ल-ए-मकानी करते
कोई आ जाता कभी यूँही अगर दिल के क़रीब
हम तिरा ज़िक्र पए-याद-दहानी करते
सच तो ये है कि तिरे हिज्र का अब रंज नहीं
क्या दिखावे के लिए अश्क-फ़िशानी करते
दिल को हर लहज़ा ही दी अक़्ल पे हम ने तरजीह
यार-ए-जानी को कहाँ दुश्मन-ए-जानी करते
शब इसी तरह बसर होती है मेरी 'इरफ़ान'
हर्फ़-ए-ख़ुश-रंग को अंदोह-ए-म'आनी करते
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