रह-ए-हयात में कोई चराग़ ही न मिला
रह-ए-हयात में कोई चराग़ ही न मिला
किसी दिमाग़ से अपना दिमाग़ ही न मिला
ग़म-ए-ज़माना से फ़ुर्सत तो मिल भी सकती थी
तुम्हारी याद से लेकिन फ़राग़ ही न मिला
सिला-ए-ख़ास की लज़्ज़त को उम्र-भर तरसे
कि उन के हाथ से कोई अयाग़ ही न मिला
ब-जुज़ लताफ़त एहसास-ए-जुस्तुजू दिल में
निगार-ए-रफ़्ता का कोई सुराग़ ही न मिला
तुम उस से पूछते हो लज़्ज़त-ए-ग़म-ए-हिज्राँ
ग़म-ए-हयात से जिस को फ़राग़ ही न मिला
बस अब ये ख़ून-ए-तमन्ना हो नज़्र-ए-वीराना
तलाश थी हमें जिस की वो बाग़ ही न मिला
तुम्ही बताओ कि ऐसे में क्या बनाते घर
कि घर के वास्ते कोई चराग़ ही न मिला
हर एक शख़्स से हँस कर मिले जो हम 'नूरी'
हमारे सीने में दुनिया को दाग़ ही न मिला
- पुस्तक : Meri Gazal (पृष्ठ 53)
- रचनाकार : karar Noori
- प्रकाशन : Rooh-e-Asar (Ishaat Ghar) (1983)
- संस्करण : 1983
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