रौशनी कब थी मिरे दाग़-ए-जिगर से पहले
रौशनी कब थी मिरे दाग़-ए-जिगर से पहले
उस ने पाई है ज़िया शम्स-ओ-क़मर से पहले
अश्क अब तक मिरी आँखों से न बरसे पहले
होंट शबनम के भी इक बूँद को तरसे पहले
जिस की तनवीर में पिन्हाँ थीं हज़ारों ज़ुल्मात
इक सहर ऐसी भी देखी है सहर से पहले
मेरी ख़ुद्दार तबीअत का तक़ाज़ा था यही
आशियाँ फूँक दिया बर्क़-ओ-शरर से पहले
फिर ज़माने की नज़र मेरी तरफ़ क्यों उट्ठी
बच के चलना था मुझे उन की नज़र से पहले
वुसअ'त-ए-कौन-ओ-मकाँ ग़र्क़ हुई है जिस में
ऐसे तूफ़ाँ भी उठे दीदा-ए-तर से पहले
ख़ुल्द कहते हैं जिसे है वो इसी का ख़ाका
इल्म था कब ये तिरी राहगुज़र से पहले
चीर कर ज़ुल्मत-ए-शब वक़्त के तेशे से 'निशात'
इक नई सुब्ह उभारेंगे सहर से पहले
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