रिंद मंसूब बहर-कैफ़ रहा जाम के साथ
रिंद मंसूब बहर-कैफ़ रहा जाम के साथ
ज़िक्र आ जाता है अपना भी तिरे नाम के साथ
दिल ने एहसास-ए-तबाही को पनपने न दिया
जाम गर्दिश में रहा गर्दिश-ए-अय्याम के साथ
ज़िंदगी को कभी तरतीब मयस्सर न हुई
रुख़ बदलते रहे हालात हर इक गाम के साथ
आप तो आप ज़माना है गुरेज़ाँ हम से
कौन रखता है तअ'ल्लुक़ किसी बदनाम के साथ
होश को फ़ुर्सत-ए-एहसास कहाँ बाक़ी थी
आँख चलती रही साक़ी की हर इक जाम के साथ
मश्ग़ला कोई नहीं बादा-गुसारी के बग़ैर
ऐसा मानूस हुआ दिल निगह-ओ-जाम के साथ
शामिल-ए-हाल रहीं उन की जफ़ाएँ 'मज़हर'
ज़िंदगी वर्ना गुज़रती मिरी आराम के साथ
- पुस्तक : Khamyazah (पृष्ठ 91)
- रचनाकार : Sayed Mazhar gilani
- प्रकाशन : Sayed Suhail wajid Fauq (1978)
- संस्करण : 1978
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