रुजूअ' करते हुए अपने मुद्दआ से मैं
रोचक तथ्य
April 12, 2004, Lahore
रुजूअ' करते हुए अपने मुद्दआ से मैं
तिरे अलावा भी कुछ माँग लूँ ख़ुदा से मैं
कोई चराग़ अगर हो मिरे तआ'क़ुब में
थकन समेटता जाऊँ नुक़ूश-ए-पा से मैं
फ़क़ीर हूँ इसी कूचे में ख़ाक फांकता हूँ
सदा लगा नहीं सकता मगर हया से मैं
रुकूँगा जा के किसी ख़ूब-रू की चौखट पर
गली में फूल खिलाता हुआ दुआ से मैं
कभी कभी यूँही अपने से पूछ लेता हूँ
किसी के खोज में निकला था कब सबा से मैं
मिरे बग़ैर मुकम्मल नहीं है ये दुनिया
कि इस क़ज़िए में शामिल हूँ इब्तिदा से मैं
शगुफ़्त होता हुआ आइना है दिल मेरा
मिरे ख़ुदा अभी महफ़ूज़ हूँ रिया से मैं
रगों में बर्फ़ बनी नींद के पिघलने पर
तुम्हें पुकारते निकलूँगा नैनवा से मैं
सुना है राह में होते हैं साया-दार शजर
कभी मिलूँगा किसी दर्द-आश्ना से मैं
लगा रहूँगा यूँही वस्ल की तग-ओ-दौ में
मरूँ कि ज़िंदा रहूँ आप की बला से मैं
गुलाब खिलने लगे हैं मिरी रग-ओ-पै में
कहूँगा जा के चमन में कभी सबा से मैं
हदफ़ बनाऊँ किसी सूरमा को अब 'साजिद'
तमाम उम्र न लड़ता रहूँ हवा से मैं
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