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सारे ज़ालिम अगर सफ़-ब-सफ़ हो गए

मुर्तज़ा बरलास

सारे ज़ालिम अगर सफ़-ब-सफ़ हो गए

मुर्तज़ा बरलास

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    सारे ज़ालिम अगर सफ़-ब-सफ़ हो गए

    हम तही-दस्त भी सर-ब-कफ़ हो गए

    वो जो कुछ भी थे अब हैं सब कुछ वही

    दर-ब-दर सारे अहल-ए-शरफ़ हो गए

    कूज़ा-गर का कमाल-ए-हुनर क्या हुआ

    जब कूज़ा बने हम ख़ज़फ़ हो गए

    ये तिरी याद के अश्क थे इस लिए

    आँख में मिस्ल-ए-दुर्रे-ए-सदफ़ हो गए

    मुंसलिक इक ख़ुशी से हुई हर ख़ुशी

    सारे ग़म एक ही ग़म में लफ़ हो गए

    बात उस से सर-ए-राह क्या हम ने की

    नावक-ए-दोस्ताँ का हदफ़ हो गए

    अब हमारी सफ़ाई में आए हो तुम

    जब कि बद-नाम हम हर तरफ़ हो गए

    नश्र होती रहीं उन की बस ख़ूबियाँ

    जुमले तन्क़ीद के सब हज़फ़ हो गए

    वो तलब कर रहे हैं वफ़ादारियाँ

    मुन्हरिफ़ जो उठा कर हलफ़ हो गए

    मुजरिमों को मुराआत इतनी मिलीं

    कि जराएम भी शुग़्ल-ओ-शग़फ़ हो गए

    तुफ़ ये औलाद-ए-बे-हिस कि जिस के सबब

    राएगाँ कार-हा-ए-सलफ़ हो गए

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat -e-Murtaza Barlas (पृष्ठ 447)
    • रचनाकार : Murtaza Barlas
    • प्रकाशन : Alhamd Publication Lahore (2011)
    • संस्करण : 2011

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