साथ वो आख़िर-ए-शब तक रहता
साथ वो आख़िर-ए-शब तक रहता
चाँद रहता भी तो कब तक रहता
या चला आता वहाँ से उठ कर
या वहीं अर्ज़-ए-तलब तक रहता
ऐसे महफ़िल में न होते बदनाम
मुद्दआ लर्ज़िश-ए-लब तक रहता
उस पे खुल जाते जुनूँ के असरार
वो अगर शोर-ओ-शग़ब तक रहता
पेश-क़दमी की दुआएँ देता
इक निगहबान अक़ब तक रहता
पहली फ़ुर्सत में निकल आना था
मैं वहाँ रहता तो अब तक रहता
उस से आगे का मुझे इल्म न था
काश वो नाम-ओ-नसब तक रहता
तश्त-अज़-बाम न होता 'कातिब'
राज़ वो मुहर-ब-लब तक रहता
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